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लघु कविता

घरौंदा.....

खोलते ही आँखें 

मैंने देखा असीम दर्द के डोरे 

अब भी झलक रहे हैं

उन आँखों में, 

जिनमें ताज़ी-ताज़ी खुशी भी है 

खत्म हुए एक लंबे इंतजार की|

वो पहला स्पर्श... 

उस कोमल ह्रदय 

पत्थर जैसी मजबूत माँ का,

जो चलते फिरते ही लाई थी 

मुझे इस धरा पर, 

अब किया मुझे स्वतंत्र 

स्वयं हमारी नाल काटकर|

न जाने कैसा था 

ये साझा अनुभव,

किन्तु मेरे चीखने का 

जश्न मनाया गया,

बधाई हो... बधाई हो...

रोता-चिल्लाता आया है|

वहीँ सख्तजान पिता का 

अश्रुबंध भी छलक आया,

पिछला प्रहर बिताया था जिसने 

प्रसव की मानसिक वेदना में 

असहाय....,

किन्तु जुट गया है अब 

ऊर्जा समेटे, व्यवस्था बनाने में|

ढिबरी में तेल और 

तसले में सूखी लकडियाँ,

चिथड़ों की पोटली और

गाय के घी का हलवा....

इस सब के बीच 

वो भूल सा गया है 

अस्तित्व खुद का...|

पिछले चार दशकों से 

चलते समय-चक्र के साथ, 

माँ-बाप के निष्काम संघर्ष का 

साक्षी रहा हूँ मैं,

घुटनों पर चलने से लेकर 

पैरों पे खड़े होने तक,

और उन्हीं पैरों से 

दूर कहीं जाकर 

यादों का दंश दिए जाने तक|

समय बदलेगा, 

सुविधाएँ बढेंगी

पुनरावृत्ति होती रहेगी 

जीवन चक्र की|

क्योंकि दस्तूर है यही 

घरौंदे का.......|

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